मुरली हरि कौं आपनौ, करि लीन्हौ माई।
जोइ कहै सोई करैं, अति हरष बढा़ई।।
घर बन सँग लीन्हे फिरैं, कहुँ करत न न्यारी।
राधा आधा अंग है, तातैं यह प्यारी।।
सोवत जागत चलत हूँ, बैठत रस वासौं।
दूरि कौन सौं होइगी, लुबधे हरि जासौं।।
अब काहे कौं झखति हो, वह भई लड़ैती।
सूर स्याम की भावती, वह अतिहिं चढ़ैती।।1252।।