आई कुल दाहि निठुर, मुरली यह माई।
याकौं रीझे गुपाल, काहूँ न लखई।
जैसी यह करनि करी, ताहि यह बड़ाई।
कैसैं सब रहत भए, यह तौ टुनहाई।
दिन-दिन यह प्रबल होति, अधर अमृत पाई।
मोहन कौं इहिं तौ कछु, मोहिनो लगाई।
कबहुँ अधर, कबहुँ कर, टारत न कन्हाई।
सूरज-प्रभु कौं ता बिनु, और नहिं सुहाई।।1251।।