मुरली तैं हरि हमहिं बिसारी।
बन की ब्याधि कहा यह आई, देति सबै मिलि गारी।।
घर-घर तै सब निठुर कराई महा अपत यह नारी।
कहा भयौ जो हरि मुख लागी, अपनी प्रकृति न टारी।।
सकुचति हौ याकौं तुम काहैं, कहौ न बात उघारी।
नोखी सौति भई यह हमकौं, और नहीं कहुँ कारी।।
इनहूँ तैं अरु निठुर कहावति जो आई कुल जारी।
सूरदास ऐसी को त्रिभुवन, जैसी यह अनखारी।।1250।।