मिलबहु पार्थमित्रहि आनि।
जलधिसुत के सुत की रुचि भई हित की हानि।।
दधि-सुता-सुत-अवलि उर पर, इंद्र आयुध जानि।
गिरि-सुता-पति-तिलक करकस, हनत सायक तानि।।
पिनाकीसुत तासु वाहन, भषक भष विष खानि।
साख-मृग-रिपु वसन मलयज, हित हुतासन बानि।।
धर्म सुत के अरि सुभावहिं, तजति धरि सिर पानि।
'सूरदास' विचित्र बिरहिनि, चूक मन मन मानि।।2086।।