मिलवहु पार्थमित्रहि आनि -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

Prev.png
राग नट


मिलबहु पार्थमित्रहि आनि।
जलधिसुत के सुत की रुचि भई हित की हानि।।
दधि-सुता-सुत-अवलि उर पर, इंद्र आयुध जानि।
गिरि-सुता-पति-तिलक करकस, हनत सायक तानि।।
पिनाकीसुत तासु वाहन, भषक भष विष खानि।
साख-मृग-रिपु वसन मलयज, हित हुतासन बानि।।
धर्म सुत के अरि सुभावहिं, तजति धरि सिर पानि।
'सूरदास' विचित्र बिरहिनि, चूक मन मन मानि।।2086।।

Next.png

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः