(माई री) मुरली अति गर्ब काहुँ, बदति नाहिं आजु।
हरि कैं मुख-कमल-देस, पायौ सुख-राजु।
बैठित कर पीठि ढीठि, अधर-छत्र-छाँहि।
राजति अति चँवर चिकुर, सुरद-सभा माँहि।
जमुना के जलहिं नाहिं, जलधि जान देति।
सुरपुर तैं सुर-बिमान, यह बुलाइ लेति।
स्थावर चर, जंगम जड़ करति जीति-जीति।
बिधि की बिधि मेटि, करति अपनी नई रीति।
बंसी बस सक्ल सूर, सुर-नर-मुनि-नाग।
श्रीपति हूँ श्री बिसारी, याही अनुराग।।653।।