भजन बिनु जीवत जैसैं प्रेत।
मलिन मंदमति डोलत घर-घर, उदर भर कैं हेत।
मुख कटु बचन, नित्त पर-निंदा, संगति-सुजस न लेत।
कबहूँ पाप करै पावत धन, गाड़ि धूरि तिहिं देत।
गुरु-ब्राह्मन अरु संत-सुजन के, जात न कबहुँ निकेत।
सेवा नहि भगवंत-चरन को, भवन नील कौ खेत।
कथा नहीं गुन गोत सुजस हरि, सब काहुँ दुख देत।
ताकी कहा कहौं सुनि सूरज, बूड़त कुटुंब समेत।।15।।