बिनती किहिं बिधि प्रभुहिं सुनाऊँ?
महाराज रघुबीर धीर कौं समय न कबहूँ पाऊँ।
जाम रहत जामिनि के बीतैं, तिहिं औसर उठि धाऊँ।
सकुच होत सुकुमार नीदं मैं कैसैं प्रभुहि जगाऊँ।
दिनकर-किरनि-उदित, ब्रह्मादिक-रुद्रादिक इक ठाऊँ।
अगनित भीर अमर-मुनि गन की, तिहिं तैं ठौर न पाऊँ।
उठत सभा दिन मधि, सैनापति-भीर देखि, फिरि आऊँ।
न्हात-खात सुख करत साहिबी, कैसैं करि अनखाऊँ।
रजनी-मुख आवत गुन-गावत, नारद तुंदुर नाऊँ।
तुमहीं कहौ कृपानिधि रघुपति, किहिं गिनती मैं आऊँ।
एक उपाउ करौ कमलापति, कहौ तौ कहि समझाऊँ।
पतित- उघारन नाम सूर प्रभु, यह रुक्का पहुँचाऊँ॥172॥