प्रीति करि दीन्ही गरै छुरी ।
जैसै बधिक चुगाइ कपट कन, पाछै करत बुरी ।।
मुरली मधुर चेप काँपा करि, मोर चद्र फँदवारि ।
बक बिलोकनि लगी, लोभ बस, सकी न पंख पसारि ।।
तरफत छाँड़ि गए मधुबन कौ, बहुरि न कीन्ही सार ।
'सूरदास' प्रभु सग कल्पतरु, उलटि न बैठी डार ।। 3185 ।।