पौढ़िऐ मैं रुचि सेज बिछाई।
अति उज्वल है सेज तुम्हारी, सोवत मैं सुखदाई।
खेलत तुम निसि अधिक गई, सुत, नैननि नींद झँपाई।
बदन जँभात, अंग ऐंडावत, जननि पलोटति पाई।
मधुरैं सुर गावत केदारौ, सुनत स्याम चित लाई।
सूरदास प्रभु नंद-सुवन कौं, नींद गई तब आई।।242।।