पीर न जानौ हो निरमोही -सूरदास

सूरसागर

1.परिशिष्ट

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पीर न जानौ हो निरमोही, अतिही निठुर अहीरा।
हम बावरी बिलोकि बदन छवि, भई दीप कौ कीरा।।
एक दिना हौ सखी सखिन मिलि, गई जमुन जल पानी।
छल करि आनि बीच भए ठाढ़े, लिए गगरिया पानी।।
मैं जानी कोउ घोप पाहुनी, हँसि डर तै उपटानी।
लागत हृदै प्रेम उमग्यौ अलि, हौ दूनौ ललचानी।।
जैसै गरभक सेइ बिरानौ, कागा रह्यौ खिसाइ।
अपनो जानि मोह मन दीन्हौ, रूप बिलोकि पत्याइ।।
अंत मिलै उड़ि छाँड़ि गए गोकुल, जूठी माखन खाइ।
ऐसै कान्ह छाँड़ि आपनही, बोलै बन खँड जाइ।।
जल मैं रहे मिलैपै नाही जथा कमल अरु नीरा।
तासौं प्रीति कौन बिधि निबहे, क्यौ आवै मन धीरा।।
कामी कुटिल क्रूर अपराधी छिन तातौ छिन सीरा।
ऊपर मिल्यौ हृदय मैं न्यारा जैसै बालग खीरा।।
जैसै मधुप कोस रस कारन आनि बलैया लेइ।
जित जित फिरै तितहि तित डोलै, भ्रमि भ्रमि भाँवरि देइ।।

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