नारद कहि समुझाइ कंस नृपराज कौं 9 -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग धनाश्री



धन्य कंस, धनि कमल ये, धन्य कृष्न अवतार।
बड़ी कृपा उरगहिं करी, फन-प्रति चरन-बिहार।
सेस करत जिय गर्ब, अंड कौ भार सीस धरि।
पूरन ब्रह्म अनंत, नाम को सकै पार फरि।
फन-फन-प्रति अति भार भरि, अमित अंड-भय गात।
उरग-नारि कर जोरि कै, कहत कृष्न सौं बात।
देखत ब्रज-नर-नारि, नंद जसुदा समेत सब।
संकर्षन सौं कहत, सुनहु सुत कान्ह नहीं अब।
इहिं अंतर जल कमल बिच, उठयौ कछुक अकुलाइ।
रोवत तैं बरजे सबै, मोहन अग्रज भाई।
आवत हैं वे स्याम, पुहप काली-सिर लीन्हे।
मात-पिता, ब्रज दुखित, जानि हरि दरसन दीन्हे।
निरतत काली-फननि पर, दिवि दुंदुभी बजाइ।
नटवर बपु काछे रहे, सब देखे यह भाइ।
आवत देखे स्याम, हरष कीन्हौ ब्रजबासी।
साक-सिंधु गयौ उतरि, सिंधु आनंद प्रकासी।
जल बूड़त नौका मिलैं, ज्यौं तनु होत अनंद।
त्यौं ब्रज-जन हुलसे सबै, आवत हैं नँद-नंद।
सुत देखत पितु-मातु-रोम, गदगद पुलकित भए।
उर उपज्यौ आनंद, प्रेम-जल लोचन दुहुँ स्वए।
दिवि दुंदुभी बजावहीं, फन-प्रति निरतत स्याम।
ब्रजवासी सब कहत हैं, धन्य-धन्य बलराम।
उरग-नारि कर जोरि, करति अस्तुति मुख ठाढ़ी।
गोपी जन अवलोकि, रूप् वह पति रुचि बाढ़ी।
सुर अंबर ललना सहित, जै जै धुनि मुख गाइ।
बड़ी कृपा इहिं उरग कौं, ऐसी काहु न पाइ।
कृपा करी प्रहलाद, खंभ तैं प्रगट भए तब।
कृपा करी गज-काज, गरुड़ तजि धाइ गए जब।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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