नारद कहि समुझाइ कंस नृपराज कौं 10 -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग धनाश्री



द्रुपद-सुता कौं करी कृपा, बसन-समुद्र बढ़ाइ।
नंद जसोदा जो कृपा, सोइ कृपा इहिं पाइ।
तब काली कर जोरि, कह्यौ प्रभु गरुड़-त्रास मोहिं।
अब करि है दंडवत, नैन भरि जब देखै तोहिं।
चरन चिह्न दरसन करत, महि रहिहै तुब पाइ।
उरग-द्वीप कौं करि बिदा, कह्यौ करौ सुख जाइ।
प्रभु यातैं सुख कहा, चरन ते फन-फन परसे।
रमा-हृदय जे बसत, सुरसरी सिव-सिर बरसे।
जन्म-जन्म पावन भयौ, फन पद-चिह्न धराइै।
पाइ परयौ उरगिनि सहित, चल्यौ द्वीप समुहाइ।
काली पठयौ द्वीप, सुरनि सुर-लोक पठाए।
आपुन आए निकसि, कमल सब तटहिं धराए।
जल तैं आए स्याम तब, मिले सखा सब धाइ।
मातु पिता दोउ धाइ कै, लीन्हौ कंठ लगाइ।
फेरि जन्म भयौ कान्ह, कहत लोचन भरि आए।
जहाँ तहाँ ब्रज-नारि-गोप आतुर ह्वै धाए।
अंकम भरि-भरि मिलत हैं, मनु निधनी धन पाइ।
मिली धाइ रोहिनि जननि, चूमति लेति बलाइ।
सखा दौरि कै मिले, गए हरि हम पर रिस करि।
धनि माता, धनि पिता, धन्य सो दिन जिहिं अवतरि।
तुम बज-जीवन-प्रान हौ, यह सुनि हँसे गुपाल।
कूदि परे चढ़ि कदम तैं, तुम खेलत ये ख्याल।
काली ल्याए नाथि, कमल ताही पर ल्याए।
जैसी कहि गए स्याम, प्रगट सो हमहिं दिखाए।
कंस मन्यो निहचय भई, हम जानी ब्रजराज।
सिंहिनि कौ छौना भलौ, कहा बड़ौ गजराज।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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