नायौ नहिं माई कोइ तौ।
सुनी री सखी संदेसहु दुर्लभ नैन थके, मग जोइतौ।।
मथुरा छाँड़ि निवास सिंधु कियौ, प्रानजिवन धन सोइ तौ।
द्वारावती कठिन अति मारग, क्यौ करि पहुँचै लोइ तौ।।
मिटी मिलन की आस अवधि गई, ब्रजबनिता कहि राइतौ।
'सूरदास' प्रभु तुम्हरे मिलन बिनु, तृप्ति कहूँ नहि होइतौ।। 4257।।