नाथ अनाथनि ही के संगी।
दीनदयाल, परम करुनामय, जन हित बहु-रंगी।
पारथ तिय कुरुराज सभा मैं बोलि करन चहै नंगी।
स्त्रवन सुनत करुना-सरिता भए, बढ़यौ बसन उमंगी।
कहा विदुर की जाति बरन है, आइ साग लियौ मंगी।
कहा कूबरी सील-रुप-गुन। बस भए स्याम त्रिमंगी।
ग्राह गयौ गज बल बिनु ब्याकुल, विकल गात, गति लंगी।
धाइ चक्र लै ताहि उबारयौ, मारयौ ग्राह बिहंगी।
कहा कहौं हरि कैतिक तारे, पावन-पद परतंगी।
सूरदास यह बिरद स्त्रवन सुनि, गरजत अधम अनंगी।।21।।