नरहरि-नरहरि, सुमिरन करौ6 -सूरदास

सूरसागर

सप्तम स्कन्ध

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राग बिलावल
श्री नृसिंह अवतार


बहुरौ ब्रह्मा सुरनि समेत । नरहरि जू कै जाइ निकेत।
करि दंडवत बिनय उच्चारी। ‘‘तुम अनंत विग्रम बनवारी।
तुमहीं करत त्रिगुन विस्तार। उतपति, थिति , पुनि करत सँहार।
करौ छमा कियो असुर सँहार।‘‘ गयौ न क्रोध, गयो सो निहार।
महादेन पुनि विनय उचारी। ‘‘नमो-नमों भक्तनि-भयहारी।
भक्त-हेत तुम असुर सँहारौ। श्री नरहरि, अब क्रोध निवारौ।
क्रोध न गयौ, तब ऐसैं कह्मो। ‘‘छमौ प्रलय कौ समय न भयौ।
‘‘ तबहूँ गयौ न क्रोध-विकार। महादेव हू फिरे निहार।
बहुरि इंद्र अस्तुति उच्चारी। ‘‘मुयौ असुर सुर भए सुखारी।
ह्वै है जज्ञ अब देव मुरारी। छमियै क्रोध सुरनि सुखकारी।
‘‘ पुनि लछमी यौ विनय सुनाइ। ‘‘डरौ देखि यह रूप नवाई।
महाराज, यह रूप दुरावहु। रूप चतुर्भुज मोहि दिखावहु‘‘।
बरुन, कुवेरादिक पुनि आइ। विनय तिनहूँ बहु भाइ।
तौहूँ क्रोध छमा नहि भयौ तब सब मिलि प्रहलादहि कह्मो।
तुम्हरैं हेत लियौ अवतार। अब तुम जाइ करौ मनुहार।
तब प्रहलाद निकट हरि आइ। करि दंडवत परयौ गहि पाइ।
तब नरहरि जू ताहि उठाइ। ह्वै कृपाल बोले या भाइ।
‘‘कहु जो मनोरथ तेरौ होइ। छाँडिं विलब करौं अब सोइ।‘‘
‘‘दीनानाथ, दयाल, मुरार। मम हित तुम लीन्हौ अवतार।
असुर असुचि है मेरो जाति। मोहि सनाथ कियौ सब भाँति।
भक्त तुम्हारी इच्छा करै। ऐसे असुर किते संहरै।
भक्तनि हित तुम धारी देह। तरिहै गाइ-गाइ गुर एह।
जग प्रभुत्व प्रभु देख्यौ जोइ। सपन-तुल्य छनभंगुर सोइ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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