नरहरि-नरहरि, सुमिरन करौ5 -सूरदास

सूरसागर

सप्तम स्कन्ध

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राग बिलावल
श्री नृसिंह अवतार


कहयौ असुरपति सौ उन जाइ। मरत नहीं बहु किए अपाइ।
हम तौ बहुत भाँति परिहारे। इन तौ रामहि नाम उचारे।
नृप् कहयौ, मंत्र जंत्र कछु आहि। कै छल करत कछू तू आहि।
तोकौं कौन बचावत आइ। सो तू मोको देहि बताइ।
‘‘मंत्र-जंत्र मेरै हरि-नाम। घट-घट मै जाकौ विश्राम।
जहाँ-तहाँ सोइ करत सहाइ। तासौ तेरौ कछु न बसाइ‘‘।
कह्मो, ‘‘कहाँसो मोहि बताइ। ना तरू तेरौ जिय अब जाइ‘‘।
‘‘सो सब ठौर‘‘, ‘‘खँभहूँ होइ? ‘ कह्मो प्रहलाद,‘‘आहि तु जोइ‘‘।
हिरनकसिप क्रोधहिं मन धान्यौ। जाइ खंम कौ मुष्टिक मान्यौ।
फटि तब खंभ भयौ द्वै फारि। निमसे हरि नरहरि-वपु धारि।
देखि असुर चकित ह्वै गयौ। बहुरि गदा लै सन्मुख भयौ।
हरि तासौं कियो जुद्ध बनाइ। तब सुर मुनि सब गए डराइ।
संध्या समय भयौ जब बनाइ। हरि जू ताकौ पकन्यौ धाइ।
निज जंधनि तर ताहि पछारयौ। नख-प्रहार जिहि उदर विदारयौ।
जै-जैकार दसौ दिसि भयौ। असुर देह तजि, हरि-पुर गयौ।
ब्रह्मादिक सब रहे अरगाइ। क्रोध देखि कोउ निकट न जाइ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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