दधिसुत जात हौ उहिं देस।
द्वारिका है स्यामसुदर, सकल भुवन नरेस।।
परम सीतल अमृतदाता, करहु यह उपदेस।
कमलनैन बियोगिनी कौ, कह्यौ इक संदेस।।
नदनदन जगत बंदन, धरे नटवर भेष।
काज अपनौ सारि स्वामी, रहे जाइ विदेस।।
भक्तबच्छल विरह तुम्हरी, मोहि यह अंदेस।
एक बेर मिलौ कृपा करि, कहै ‘सूर’ सुदेस।। 4264।।