जो घट अंतर हरि सुमिरै।
ताकौ काल रूठि का करिहै, जो चित चरन धरै।
कोपै तात प्रहलाद भगत कौ, नामहिं लेत जरै।
खंभ फारि नरसिंह प्रगट ह्वै, असुर के प्रान हरै।
सहस बरस गज युद्ध करत भए, छिन इक ध्यान धरै।
चच्र धरे बैकुंठ तैं धाए, बाकी पैज सरै।
अजामील द्विज सौं अपराधी, अंतकाल बिडरै।
सुत-सुमिरत नारायन-बानो, पार्षद धाइ परैं।
जहँ जहँ दुसह कष्ट भक्तनि कौं, तहँ तहँ सार करै।
सूरदास स्याम सेए तैं दुस्तर पार तरै।।82।।