जागिये गुपाल लाल ग्वाल द्वार ठाढ़े।
रैनि-अंधकार गयौ, चंद्रमा मलीन भयौ, तारागन देखियत नहिं तरनि-किरनि बाढे़।।
मुकुलित भए कमल-बाल, गुज करत भृंग-माल, प्रफूलित बन पुहुप डाल, कुमुदिनि कुंभिलानी।
गंध्रबगन गान करत, स्नान दान नेम धरत, हरत सकल पाप, बदत बिप्र बेद-बानी।।
बोलत नंद बार-बार देखैं मुख तुव कुमार, गाइनि भई बड़ी बार, वृंदावन जैबैं।
जननि कहति उठौ स्याम, जानत जिय रजनि ताम, सूरदास प्रभु कृपाल, तुमकौं कछु खैबें।।1212।।