जदपि मैं बहुतै जतन करे।
तदपि मधुप हरिप्रिया जानि कै, काहुँ न प्रान हरे।।
सौरभजुत सुमननि लै निज कर, सतत सेज धरे।
सनमुख सहति सरद ससि सजनी, ताहु न अंग जरे।।
मधुकर, मोर, कोकिला, चातक, सुनि सुनि स्रवन भरे।
सादर ह्वै निरखतिं रतिपति दृग, नैकु न पलक परे।।
निसि दिन रटति नदनंदन कौ, उर तै छिन न टरै।
अति आतुर गुन सहित चूमू सजि, अगनि सर सँचरे।।
जानत नहीं कौन गुन इहि तन, जातै सब बिडरे।
'सूरदास' सकुचनि श्रीपति की, सुभटनि बल बिसरे।।3767।।