ग्वालिनि छाँड़ि दै बिरह खरयौ।
तेरै बिरह बिरहिनी व्याकुल, भुवन काज बिसरयौ।।
कर पल्लव उडुपति रथ खैच्यौ, मृग पति वैर करयौ।
पखी पति सबही सकुचाने, चातक अनँग भरयौ।।
सारँग सुर सुनि भयौ वियोगी, हिमकर गरब टरयौ।
'सूरदास' सायर-सुत-हित-पति, देखत मदन हरयौ।। 3392।।