बिरह भरयौ घर आँगन कोने।
दिन दिन बाढ़त जात सखी री, ज्यौं कुरुखेत के सोने।।
तब वह दुख दीन्हौ जब बाँधे, ताहू कौ फल जानि।
निज कृत चूक समुझि मन ही मन, लेति परस्पर मानि।।
हम अबला अति दीनहीन मति, तुम सबही विधि जोग।
‘सूर’ बदन देखतहि अहूठै, यह सरीर कौ रोग।। 3393।।