गोबिंद गोकुल जीवन मेरे।
जाइ लगाइ रही तन-मन-धन, दुख भूलत मुख हेरै।।
जाके गर्ब बद्यौ नहिं सुरपति, रह्यौ सात दिन घेरे।
ब्रज-हित नाथ गोबर्धन धारयौ, सुभग भुजनि नख नेरैं।।
जाकौ जस रिषि गर्ग बखान्यौ, कहत निगम नित टेरे।
सोइ अब सूर सहित संकर्षन, पाए जतन घनेरे।।1395।।