गिरि पर बरषन लागे बादर।
मेघ वर्त्त, जल वर्त्त, सैन सजि, आए लै-लै आदर।।
सलिल अखंड धार धर टूटत, किये इंद्र मन सादर।
मेघ परस्पर यहै कहत हैं, धोइ करहु गिरि खादर।।
देखि देखि डरपत ब्रजबासी, अतिहिं भए मन कादर।
यहै कहत ब्रज कौन उबारै, सुरपति कियैं निरादर।।
सूर स्याम देखैं गिरि अपनैं मेघनि कीन्हौ दादर।
देव आपनौ नहीं सम्हारत, करत इंद्र सौं ठादर।।858।।