कौन गति करिहौ मेरी नाथ -सूरदास

सूरसागर

प्रथम स्कन्ध

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राग सारंग



कौन गति करिहौ मेरी नाथ।
हौं तो कुटिल, कुचील, कुदरसन, रहत विषय के साथ।
दिन बीतत माया कैं लालच, कुल-कुल-कुटुंब कै हेत।
सिगरी रैनि नींद मरि सोवत, जैसैं पसू अचेत।
कागद धरनि, करैं द्रुम लेखनि, जल-सायर मसि धोरै।
लिखे गनेस जनम भरि मम कृत, तऊ दोष नहिं ओरै।
गज, गनिका अरु विप्र अजामिल, अगनित अधम उधारे।
यहै जानि अपराध करे मैं तिनहूँ सौं अति भारे।
लिखि लिखि मम अपराध जनम के, चित्रगुप्‍त अकुलाए।
भृगु रिषि आदि सुनत चकित भए, जम सुनि सीस डुलाए।
परम पुनीत-पवित्र, कृपानिधि, पावन-नाम कहायौ।
सूर पतित जब सुन्‍यौ बिरद यह, तब धीरज मन आयौ।।।125।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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