कृष्न कृपा सबही तैं न्यारी। कोटि करै तप, नही मुरारी।।
भाव भजन कुबिजा भई प्यारी। दनुज भाव बिनु डारे मारी।।
प्रथमहि रजक मारि पुर आए। धनुषजज्ञ कौ कंस बुलाए।।
तोरि कोदंड वीर सब मरि। हित कुबिजा कै धाम सिधारे।।
रूप-रासि-निधि ताकौ दीन्हौ। आवन कह्यौ गवन तब कीन्हौ।।
तहाँ कुबलया राख्यौ द्वारे। जात स्याम बलराम बिचारे।।
माली मिल्यौ माल पुहुपनि लै। लीन्हौ कठ स्याम अति रुचि कै।।
मन कामना तुरत फल पायौ। कोटि कोटि मुख अस्तुति गायौ।।
आतुर गए कुबलया पासा। सूरज चंद धरनि परगासा।।
बालक देखि महावत हरप्यौ। कर धरि पुच्छ तुच्छ करि करप्यौ।।
कौतुक करि मतंग मतवारौ। गहि पटक्यौ, तन नैकु न टारौ।।
दुहुनि एक एक दंत उपारयौ। जहाँ मल्ल तहँ कौ पग धारयौ।।
देखत रूप त्रास जिय आन्यौ। मन मन काल अपनौ जान्यौ।।
तब कोमल दरसे जदुराई। तुरत गए आगै सब धाई।।
मारे मल्ल एक नहिं उबरे। पटकत धरनि स्त्रवन नृप घुमरे।।
कोष सहित सब कंस प्रचारयौ। ताहि प्रगटि तुरतहिं तेहि मारयौ।।
अमर नाम नर कहि कहि भापै। सदा आपने जन कौ राखै।।