राजा उग्रसेन कहवाए। मातु पिता बंदि तै छुड़ाए।।
इतनौ काज किए हरि निकै। कुबिजाप्रेम बँधे हरि ही कै।।
आतुर हरि ताकै घर आए। रानिनि बोधि महल नहिं भाए।।
चितवत मंदिर भए अवासा। महल महल लागे मनि पासा।।
जबहिं सुने कुबिजा हरि आए। पाटवर पाँवड़े डसाए।।
कुबिजा तै भई राजकुमारी। रूप कहा कहौ कृष्नपियारी।।
टेढ़ी तै हरि सूधी कीन्ही। लच्छन अंग अंग प्रति दीन्ही।।
राजा हरि कुबिजा पटरानी। मथुरा घरघर सबही जानी।।
गोप सखा यह सुनत न माने। त्रासहिं मै सब रहत सकाने।।
मारयौ कंस सुनत सब सके। बन मोहन आए नहिं दंके।।
व्रज तै चले भए पट जामा। व्याकुल महरि होति लै नामा।।
प्रजा जानि मन मन डरपाही। कैसै बल मोहन व्रज जाही।।
इहिं अतर हरि आए तहई। नंद गोप सब राखे जहँई।।
नृप ऊधव अकूरहिं दीन्हौ। तहाँ गवन 'सूरज' प्रभु कीन्हौ।।3109।।