किधौ घन गरजत नहिं उन देसनि।
किधौ हरि हरषि इद्र हठि बरजे, दादुर खाए सेपनि।।
किधौ उहिं देस बगनि मग छाँडे, घरनि न बूँद प्रवेसनि।
चातक मोर कोकिला उहिं बन, बधिकनि बधे विसेषनि।।
किधौ उहिं देस बाल नहिं झूलति गावति सखि न सुदेसनि।
'सूरदास' प्रभु पथिक न चलही, कासौ कहौ सँदेसनि।। 3310।।