कान्ह चलत पग द्वै-द्वै धरनी।
जो मन मैं अभिलाष करति ही, सो देखति नँद-घरनी।
रुनुक-झुनुक नूपुर पग बाजत, धुनि अतिहीं मन-हरनी।
बैठि जात पुनि उठत तुरतहीं, सो छबि जाइ न बरनी।
ब्रज-जुवती सब देखि थकित भइँ, सुंदरता की सरनी।
चिरजीवहु जसुदा कौ नंदन, सूरदास कौं तरनी।।123।।