कहौ कपि, जनक-सुता-कुसलात -सूरदास

सूरसागर

नवम स्कन्ध

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राग मारू
हनुमान-राम-संवाद


 
कहौ कपि, जनक-सुता-कुसलात।
आवागमन सुनावहु अपनौ, देहु हमैं सुख-गात।
सुनौ पिता, जल-उतर ह्वै कै रोवयौ मग इक नारि।
धर-अंवर लौं रूप निसाचरि, गरजी बदन पसारि।
तब मैं डरपि कियौ छोटौ तनु, पैट्या उदर-मँझारि।
खरभर परी, दियौ उन पैड़ौ, जीती पहली रारि।
गिरि मैनाक उदघि मैं अद्भुत, आगैं रोक्यौ जात।
पवन-पिता कौ मित्र न जान्यौ, धोखैं मारी लात।
तबहूँ और रह्यौ सरितापति आगे जोजन सात।
तुव प्रताप परली दिसि पहुँच्यौं, कौन वढ़ावै बात।
लंका पौरि-पौरि मैं ढूँढ़ी अरू बन-उपवन जाइ।
तरु असोक-तर देखि जानकी, तब हौं रह्यौ लुकाइ।
रावन कह्यौ सौ कह्यौ न जार्इ, रह्यौ क्रोध अति छाई।
तब ही अवध जानि कै राख्यौ मंदोदरि समुझाइ।
पुनि हौं गयौ सुफुलबारी मैं देखी दृष्टि पसारि।
असी सहस किंकर- दल तेहि के दौरे मोहिं निहारि।
तुव प्रताप तिनकौं छिन भीतर जूझत लगी न बार।
उनकौं मारि तुरत मैं कीन्ही मेघनाद सौं रार।
ब्रह्म-फाँस उन लई हाथ करि मैं चितयौ कर जारि।
तज्यौर कोप मरजादा राखी, बँध्यौर आप ही भोरि।
रावन पै लै गए सकल मिलि, ज्यौंं लुब्धौक पसु जाल।
करुवौ वचन स्त्रवन सुनि मेरौ, अति रिस गही भुवाल।
आपुन ही मुगदर लै धायौ, करि लोचन बिकराल।
चहुँदिसि सूर सोर करि धावैं, ज्यौं करि हेरि सृगाल॥104॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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