कहा होत जो हरि हित चित धरि, एक बार ब्रज आवते।
तरसत ब्रज के लोग दरस कौ, निरखि निरखि सुख पावते।।
मुरली सब्द सुनावत सबहिनि, हरते तन की पीर।
मधुरे वचन बोलि अमृत मुख, विरहिनि देते धीर।।
सब मिलि जग जस गावत उनकौ, हरष मानि उर आनत।
नासत चिंता ब्रज बनितनि की, जनम सुफल करि जानत।।
दुरी दुरा कौ खेल न कोऊ, खेलत हैं ब्रज महियाँ।
बाल दसा लपटाइ गहत है, हँसि हँसि हमरी बहियाँ।।
हम दासी बिनु मोल की उनकी, हमहिं जु चित बिसारी।
इत तै उत हरि रमि रहे अब तौ, कुबिजा भई पियारी।।
हिय मैं बातै समझि समुझि कै,।
‘सूर’ सनेही स्याम प्रीति के, ते अब भये पराए।।3995।।