कहा लाइ तैं हरि सौं तोरी !
हरि सौं तोरि कौन सौं जोरी !
सिर पर धरि न चलैगौ कोऊ, जो जतननि करि मया जोरी।
राज-पाट सिंहासन बैठौ, नील पदुम हूँ सौं कहै थौरी।
मैं-मेरी करि करि जनम गँवावत, जब लगि नाहि परति जम-डोरी।
धन-जोवन-अभिमान अल्प जल, काहे कूर आपनीं बोरी।
हस्ती देखि बहुत मन-गर्वित, ता मूरख की मति है थोरी।
सूरदास भगवंत-भजन बिनु, चले खेलि फागुन को होरी।।303।।