कहा करौं मन हाथ नहीं।
तू मौ सौं यह कहति भली री, अपनी चित मोहि देति नहीं।।
नैन रूप अटक नहिं आवत, स्रवन रहे सुनि बात तहीं।
इंद्री धाइ मिलीं सब उनकौं तन मय जीव रह्यौ संगहीं।।
मेरैं हाथ नहीं ये कोऊ, घट लीन्हैं इक रही महीं।
सूर स्याम सँग तैं कहूँ टरत न, आनि देहि जौ मोहिं तुहीं।।1655।।