बिकानी हरि-मुख की मुसुकानि -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग सारंग


बिकानी हरि-मुख की मुसुकानि।
पर बस भर्इ फिरति सँग निसि दिन, सहज परी य बानि।।
नैननि निरखि बसीठी कीन्ही, मन मिलयौ पय पानि।
गहि रति-नाथ लाज निज पुर तैं, हरि कौं सौंपी आनि।।
सुनि री सखी स्याम सुंदर की, दासी सब जग जानि।
जोइ जोइ कहत सोई कृत, आयसु माथैं मानि।।
तजि कुल-लाज, लोक-मरजादा, पति-परिजन-पहिचानि।
सूर सिंधु-सरिता मिलि जैसैं, मनसा-बूंद हिरानि।।1656।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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