उतहिं सखा कर जेरी लीन्हे, गारी देहिं सकुच थोरी की।
इतहिं सखी कर बाँस लिये बिच, मार मची झोरा झोरी की।।
पाछे तै ललिता चंद्रावलि, हरि पकरे भुज भरि कौरी की।
ब्रजजुवती देखतही धाई, जहाँ तहाँ तै चहुँ ओरी की।।
इक पट पीतांबर गहि झटक्यौ, इक मुरलि लई कर मोरी की।
इक मुख सौ मुख जोरि रहति, इक अंक भरति रतिपति ओरी की।।
तब तुम चीर हरे जमुना तट, सुधि बिसरे माखन चोरी की।
अब हम दाउँ आपनौ लैहै, पाइ परौ राधा गोरी की।।
अपने अपने मनसुख कारन, सब मिलि झकझोरा झोरी की।
नीलांबर पीतांबर सौ लै, गाँठि दई कसि कै ढोरी की।।
कनक कलस केसरि भरि ल्याई, डारि दियौ हरि पर ढोरी की।
अति अनंद भरी ब्रजजुवती, गावति गीत सबै होरी की।।
अमर विमान चढ़े सुख देखत, पुहुप वृष्टि जै-धुनि-रोरी की।
'सूरदास' सो क्यौ करि बरनै, छवि मोहनराधा जोरी की।।2872।।