कर तैं धरयौ गिरिवर धरनि।
देखि व्रज-जन छबि रहे थकि, रुप रति-पति हरनि।।
लेत बेर न धरत जान्यौ, कहत ब्रज घर-घरनि।
तन ललित भुज अतिहिं कोमल, कियो बल बहु करनि।।
मोर मुकुट, बिसाल लोचन, श्रवन कुंडल बरनि।
नव जलद, सुरचाप की छबि, जुगल खंजन तरनि।।
बरषि निझरे मेघ-पाइक बहुत कीनी अरनि।
सूर सुरपति हारि मानी तब परयौ दुहुँ चरनि।।959।।