घर घर तैं ब्रज-जुवती आवतिं।
दधि अच्छत रोचन धरि थारनि, हरषि स्याम-सिर तिलक बनावतिं।।
बार-बार निरखतिं अँग-अँग-छबि स्याम रुप उर माहिं दुरावतिं।
नंद-सुवन गिरि धरयौ बाम कर, यह कहि कहिय मन हरष बढ़ावतिं।।
जिहिं पूजत सब जनम गँवायौ, सो कैसेहुँ पग छुवन न पावतिं।
सूर स्याम गिरिधरन माँगि बर, कर जोरतिं कहि बिधिहिं मनावति।।958।।