ऊधौ रथ बैठि चले, ब्रज तन समुहाइ।
मथुरा तै निकसि परे, गैल माझ आइ।।
वहै मुकुट पीतांबर, स्याम रूप काछे।
भृगुपद इक वंचित उर, और अंग आछे।।
ज्ञान कौ अभिमान किए, मोकौ हरि पठयौ।
मेरोई भजन थापि, माया सुख झुठयौ।
मधुवन तै चल्यौ तबहिं, गोकुल नियरान्यौ।
देखत ब्रज लोग स्याम, आयौ अनुमान्यौ।।
राधा सौ कहति नारि, काग सगुन टेरौ।
मिलिहै तोहिं स्याम आजु, भयौ बचन मेरौ।।
वैसोइ रथ देखति सब, कहतिं हरष बानी।
‘सूरज’ प्रभु से लागत, तरुनी मुसुकानी।।3457।।