ऊधौ जौ तुम बात कही।
ताकौ कछू न उत्तर आवै, समुझि बिचारि रही।।
पा लागौ तुमही बूझति हौ, तुम पर वुधि उमही।
कैसै सीतल होइं पवन जल पियैं, वियोग दही।।
कुबिजा सौ पढि तुमहि पठाए, नागर नवल लही।
अब जोई पद देहिं कृपा करि, सोइ हम करै सही।।
बिछुरत विरह अगिनि नाही जरि, नैननि जल निबही।
अब सुनि सूल सहतिं सब ‘सूरज’, कुल मरजाद ढही।।4003।।