ऊधौ इहिं ब्रज बिरह बढ्यौ।
घर बाहर, सरिता, वन, उपवन देखहु द्रुमनि चढ़यौ।।
दिन अरु रैन, सधूम भयानक, दिसि दिसि तिमिर मढ़यौ।
दुंद करत अति प्रबल होत पुरपंथहुँ अनल दढ़यौ।।
जरि नहिं भई भस्म ताही छिन, जौ हरि नाम रढ़यौ।
'सूरदास' प्रभु नंदजँदन बिनु, नाहिंन जात कढ़यौ।।4002।।