हरि बिन अपनौ को संसार।
माया-लोभ-मोह हैं चाँड़े काल-नदी की धार।
ज्यों जन संगति होति नाव मैं, रहति न परसैं पार।
तैसैं धन-दारा-सुख-संपति, बिछुरत लगै न बार।
मानुष-जनम, नाम नरहरि कौ, मिलै न बारंबार।
इहिं तन छन-भंगुर के कारन, गरबत कहा गँवार।
जैसै अंधौ अंध कूप मैं गनत न खाल पनार।
तैसेहिं सूर बहुत उपदेसैं सुनि सुनि गे कै बार।।84।।