प्रगट तुम गुपत तुम तुमहिं सरबातमा, चक्र तुव अग्नि रुद्र कितक हारे ।
बुद्धि बिधि चंद्रमा मन अहंकार मैं, धरि चरन रोम सब बृच्छ सारे ।।
सीस आकास अरु स्रवन दसहू दिसा, इंद्र कर लोक त्रै बपु तिहारौ ।
बान जगदीस मोहि जानि मम ईस तुम, राखि तिहि माथ अब हाथ चारौ ।।
बिहँसि जगदीस कह्यौ रुद्र जो तुहिं भजै, तहाँ मैं जाउँ यह प्रन हमारै ।
कियौ प्रहलाद कुल अभय मैं प्रथमही, बान कियौ अमर भाषै तिहारे ।।
करै जो सेव तुम्हरी सु मम सेव है, विष्नु सिव ब्रह्म मम रूप सारे ।
बान अभिमान मन माहिं धारयौ हुतौ, तब विदित हाथ तातै सँहारे ।।
रुद्र अरु बान अनिरुद्ध सनमान करि, तुरत भगवान कै निकट ल्याए ।
बहुरि ऊषा दई ब्याहि दाइज सहित, हरि हरष करत निज पुरी आए ।।
यह सकल कथा जो रुद्र अस्तुति सहित, करै सुमिरन ताहि भय न होई ।
कही जो ब्यास सुकदेव भागवत मैं, कही अब ‘सूर’ जन गाइ सोई ।। 4198 ।।