लोभी नैन हैं मेरे।
उतहिं स्याम उदार मन के, रूपनिधि टेरे।।
जातही उन लूटि पाई, तृषा जैसै नीर।
छुधा मै ज्यौ मिलत भोजन, होत जैसैं धीर।।
वै भए रो निठुर मोकौ, अब परी यह जानि।
अष्ट सिधि नव निद्धि हरि तजि, लेहि ह्याँ कह आनि।।
आपने सुख के भए वै है जु, जुग अनुमान।
'सूर' प्रभु करि लियो आदर, बड़े परम सुजान।।2330।।