लोगनि कहत झुकति तू बौरी।
दधि माखन गाँठी दै राखति, करत फिरत सुत चोरी।
जाके घर की हानि होत नित, सो नहिं आनि कहै री?
जाति-पाँति के लोग न देखति, और बसैहैं नैरी।
घर-घर कान्ह खान कौं डोलत, बड़ी कुप तू है री।
सूर स्याम कौं जब जोइ भावै, सोइ तबहीं तू दै री।।324।।