लरिकाई मैं जोवन की छवि देखौ लोचन सदर भरि भरि।
बिथुरी अलक बदन छवि छाजति सुरति केलि मनु सीखि लई हरि।।
गंड चखौड़ा मेचक बिंदुली भए चिह्न मनु चुंबन करि करि।
नैन सलोने भ्रमत भ्रमर ज्यौ ललित गिरा सु तौ सहजहि तोतरि।।
आँगन डोलत मत गयंद मनु राखति सखि वर भुज लतिका भरि।
‘सूर’ स्याम सब समय महा सुख देत लाल पावति सब नागरि।। 14 ।।