मोहन जा दिन बनहि न जात ।
ता दिन पसु पच्छी द्रुम बेली, बिनु देखे अकुलात ।।
देखत रूप निधान नैन भरि, तातै नहीं अघात ।
ते न मृगा तृन चरत उदर भरि, भए रहत कृस गात ।।
जे मुरली धुनि सुनत स्रवन भरि, ते मुख फल नहिं खात ।
ते खग बिपिन अधीर कीर पिक, डोलत है बिलखात ।।
जिन बेलिन परसत कर पल्लव, अति अनुराग चुचात ।
ते सब सूखी परतिं बिटप ह्वै, जीरन से द्रुम पात ।।
अति अधीर सब बरस सिथिल सुनि, तन की दसा हिरात ।
‘सूरजदास’ मदनमोहन बिनु, जुग सम पल हम जात ।। 3202 ।।