नहिं बिसरति वह रति ब्रजनाथ।
हौ जु रही हठि रूठि मौन धरि, सुख ही मैं खेलत इक साथ।।
पचिहारे मैं तऊ न मान्यौ, आपुन चरन छुए हँसि हाथ।
तब रिस धरि सोई उत मुख करि, झुकि ढांप्यौ उपरैना माथ।।
रह्यौ न परै प्रेम आतुर अति, जानी रजनी जात अकाथ।
‘सूरस्याम’ हौ ठगी महा निसि, कहति सुनाइ प्रीति की गाथ।। 3203।।