माधौ छाँड़ि दई पहिचानि।
तब तै विरह कुटिल या गोकुल, कीन्हौ है निज खानि।।
तनु गिरि जानि आनि अवनी उर, इहि भय भीत रहे।
गमन कान्ह छन छन जु काम ससिकिरनि कुदार गहे।।
रज अंजन जल नैन द्वार ह्वै, रह्यौ हृदय भरि पूरि।
निकसत नाहि उपाइ रतन ज्यौ, गयौ स्याम सँग दूरि।।
तुम सो बात और अलि भाषे, उलटि ध्यान वपु जीति।
द्वै नृप लरत प्रजा इंद्री गति, ‘सूर’ कौन यह नीति।।4038।।