तेऊ चाहत कृपा तुम्हारी।
जिन कैं वस अनिमिष अनेक गन अनुचर अज्ञाकारी।
बहत पवन, भरमत ससि-दिनकर, फनपति सिर न डुलावै।
दाहक गुन तजि सकत न पावक, सिंधु न सलिल बढ़ावै।
सिव-विरंचि-सुरपति-समेत सब सेवत प्रभु-पद चाप।
जो कुछ करन कहत सोई सोइ कीजत अति अकुलाए।
तुम अनादि, अविगत, अनंत-गुन-पूरन परमानंद।
सूरदास पर कृपा करौ प्रभु, श्रीबृंदावन-चंद।।163।।