ग्वालि उरहनौ भोरहिं ल्याई। जसुमति कहँ तैरौ गयौ कन्हाई।
भलौ काम तै सुतहिं पढायौ। बारे ही तै मूँड़ चढ़ायौ।
माखन मथि भरि धरी कमोरी। अबहीं सी हरि ने गयौ चोरी।
यह सुनतहिं जसुमति रिस मानी। कहाँ गयौ कहि सारँगपानी।
खेलत तैं औचक हरि आए। जननी वाहँ पकरि बैठाए।
मुख देखत जसुमति तब जान्यौ। माखन बदन वहाँ लपटान्यौ।
फिर देखैं तो ग्वारिनि पाछैं। माता मुख चितवत नहिं आछै।
चोरी के सब भाव बताए। माता सँटिया द्वैक लगाए।
माखन खान जात पर घर कौ। बाँधत तोहि नैंकु नकह धरकौ।
बाँह गहे ढूँढ़ति फिरै डोरी। बाँधौं तोहिं सकै को छोरी।
बाँधि पची डोरी नहिं पूरै। बार-बार खीझै रिस-झुरै।
घर-घर तैं जेंवरि लै आई। मिस ही मिस देखन कौ धाई।
चकित भई देखैं ढिग ठाढ़ी। मनौ चितेरैं लिखि-लिखि काढी।
जसुमति जोरि-जोरि रजु बांधै। अँगुर द्वै-द्वै जेवरि साधे।
जब जानी जननी अकुलानी। आपु बँधायौ सारँगपानी।
भक्त-हेत दाँवरी बँधाई। तब जमलार्जुन की सुधि आई।
माता हेत जनहिं सुखकारी। जानि बँधाए श्री बनवारी।
मुख जम्हाइ त्रिभुवन दिखरायौ। चकित कियौ तुरतहि बिसरायौ।
बाँधि स्याम बाहिर लै आई। गोरस घर-घर खात चुराई।
ऊखल सौं गहि बाँधे कन्हाई। नितहिं उरहनौ रूह्यौ न जाई।
इक कहि जाति एक फिरि आयै। रैनि-दिवस तू मोहि खिझावै।
माखन दधि तेरैं घर नाहीं। धाम भरयौ चोरी किर खाही।